बुधवार, 29 मई 2013

मेरी मौत

               ।। मेरी मैात ।।  -                                    

    मरना तो लगा रहता है एैसी भी क्या जल्दी है , 
    थोड़ा जी तो लीजिये ,  थोड़ी पी तो लीजिये ।

मरना तो इस मरणधर्मा शरीर का गुण है जिसे हम जीवन भर नकारते रहते हैं ।
 ख़ैर सोचा तो बहुत िक न मरूँ अभी मरने की कोई उम्र है क्या , पर मौत कोई पूछती है क्या िक मरना है िक नही वह तो बस चुपके से आ जाती है , संभलने का भी मौका नही देती या देती भी है तो हम उस मौके को समझ कहां पाते हैं । और सच पूछा जाये तो यहाँ कोई भी राजी खुशी मरना ही नही चाहता । िफर वह चाहे इंसान हो या कोई अन्य , यूं तो िजतने भी मरते हैं या मरे हैं तक़रीबन सभी मजबूरी मे मरे हैं या मारे गये हैं । िकसी से पूछा भाई क्यांे िजन्दा हो ! तो उसने सहज ही कह िदया चूँकि मरे नही है , इस्िलये  िजन्दा है ं। अमीर तो चलो ठीक है प्राप्त धन एैश्वर्य भोगने के िलये मरना नही चाहता पर आश्चर्य तो यह है िक िजसके पास जीने के िलये या मरने के िलये न तो कोई कारण है और न ही कोई कोई भ्िवष्य िफर भी वह मरना तो क़तई नही चाहता ।
मै उस परम पुरुष का दासा ।
देखन आयौ जगत तमाशा ।।
यह सब दर्शन तो ठीक है पर सोचा मर के देख ही िलया जाए , हमारे बड़े बुज़ुर्ग भी कहते रहे हैं , िक स्वर्ग देखने के िलये खुद मरना पड़ता है ,वैसे  मुझे वैसे स्वर्ग देखने की कोई आकांक्षा तो कतई नही है पर Blessing in Disguise स्वर्ग देखने को िमल गया तो देखने मे नुक़सान तो नही होगा इस बात का तो विश्वास है । हालाँकि स्वर्ग जाने जैसे कोई कर्म मैंने िकये हों एैसा िनश््िचत रूप से नही कहा जा सकता । उत्सुकता तो है िक स्वर्ग मे एैसा होता है वैसा होता है वह भी इतनी बार सुना है सोचा मौक़ा िमलेगा तो क्यों नही ।
तमाशाबीन हूँ देखता हूँ तमाशाये दु्िनया ।
हो्िशयार भी हूँ ,कहीं ख़ुद तमाशा न बन जाऊँ ।।
िफर लगा इस सोच िवचार मे उलझा तो िफर मर नही पाउंगा अच्छा तो यह है िक मर जाउं सोचना िवचारना तो लगा रहता है कहीं एैसा न हो िक मरना इस बार भी रद्द हो जाए । वैसे तो बहुत सारे लोग तो सोच सोच कर मरे जाते है , कुछ तो िजये ही नही तो उनके िलये तो ".मरना क्या और जीना क्या दोनो ही बेईमानी है , और कुछ है िक उनको मरने की भी फुरसत नही है । कुछ तो इस िलये मरने की सोचते हैं िक मर के ही चैन िमलेगा , पर अहम तो यह भी है िक मर के भी चैन न िमला तो िफर कहाँ जाएँगे ।
 मेरी सारी िस्थ्ित मरने के पर्याप्त अनुकूल है और िफर मैं कोई शर्म के मारे थोड़ी मर रहा हूँ वैसे भी शर्म से भी लोग मरने का स्वांग ही रचते हैं मरते नही हैं । मैं तो िसर्फ मरने का अनुभव लेने की िलये मर रहा हूँ । पर इसका मतलब तो यही हुआ िक पहले भी कई बार आदमी मरा होगा तब न वह मरने से डरता है अन्यथा उसे डरने की क्या ज़रूरत है और िफर धर्मशास्त्रो मे तो िलखा भी है िक एक िबच्छू जब काटता है तो बड़ा दर्द होता है और मरने के समय तो एक साथ हज़ार िबच्छुओं के काटने का दर्द होता है । इतने दर्द मे तो वह एक क्षण मे ही बेहोश हो जाता होगा और दर्द तो महसूस ही नही होता होगा िफर कैसा संताप ।

तर्कों से बात क़तई नही बनेगी मुझे तो मरना है ।पर यह कोई अनहोनी घटना तो है नही हमारे जीवन मे हमारे देखे देखे ही िकतने मर गये , िकतने मर रहे हैं , और आगे भी मरेंगे सभी मरते हैं मैं भी मर जाऊँगा आिखर मर कर िसद्ध क्या होने वाला है । मैं कुछ िसद्ध करने के िलये नही बस मैं तो मर कर मौत के पार देखना चाहता हूँ िक मरने के बाद क्या होता है । 
कहते है यमराज के पास हर जीव का खाता होता है ( हो सकता वहां भी कंम्प्यूटर की उच्चतम िवधा हो , बस िफर तो समय भी कम लगेगा ) वहाँ िचत्रगुप्त बही खाता टटोल कर सारा कच्चा पक्का िचट्ठा खोल देते हैं स्वर्ग , नर्क , मुक्ति । स्वर्ग गये तो  स्वर्ग मे भी ऊपर सप्त लोक भु: , भुव: , स्व: , मह: , जन: , तप: , सत्यम है अब यहाँ कहां पर जाना होगा और वो भी कब तक के िलये ? अगर नर्क गये तो नर्क नीचे की ओर है और वो भी सप्त है - तल , अतल , सुतल , पतल , तलातल अब यहां पर भी कहां भेजा जायेगा और वो भी कब तक के िलये ? स्वर्ग तो ठीक है ब्रहमाण्ड मे है पर नर्क तो नीचे है । नीचे जाने के िलये तो आधार चा्िहये ही पड़ेगा ? उस िहसाब से अगर देखा जाये तो हमारी इस गोल पृ्िथवी मे भारत की भू्िम से नीचे छेद करने पर तो अमेिरका आ जायेगा , वहां तो बड़ा एैश्वर्य है ठीक भी है नर्क मे असुरों का राज्य है और वहां भी एैश्वर्य है । और अगर मुक्ति हो गयी तो  उसमे क्या होगा । उसमे तो कुछ भी नही होगा पर अस्ितत्व तो रहेगा या नही या वो भी नदी सागर मे जा कर िवलीन हो जायेगी । मुिक्त वो भी कई है सायुज्य , सारूप , सालोक्य इनमे कैान सी िमलेगी और वह भी कब तक के िलये ? बड़ा िवकट है भइया यहीं से सब समझना , इस्िलये मरना तो पड़ेगा । 

अच्छा िजतने भी अभी तक मर कर गये हैं उनमें कोई भी लौट कर अपना अनुभव बताने तो आया नही िक भईया ये करो तो स्वर्ग न करो तो नर्क या मुक्त या जो भी वहां का प्रच्िलत िनयम वगैरह हो , िफर अपनी भी क्या गारंटी िक आये आये न आये । पर वािपस आना ही क्यों ? तो अनुभव कौन बताएगा । अनुभव गया चूल्हे मे एक बार मरे तो तू तेरा मैं मेरा । नही यह तो ठीक नही है िफर मरने का कोई औिचत्य ही नही है िफ़र तो routine मे मरना ज्यादा ठीक है । 
जिसको वाक़ई मरना होता है वह यह सब सोच िवचार का झंझट ही नही पालता वह तो बस मर जाता है , पर यह तो सब आत्महत्या जैसा ही होगा । आत्महत्या तो पाप है एैसा मत है हालाँकि इसकी प्रमा्िणकता भी वहीं से सत्यािपत होगी इसिलये मरना तो पड़ेगा ।

गुरु महाराज से अपने मन की इच्छा मरने की ज़ाहिर कर समाधान की प्रत्याशा मे डट गया िक प्रभु मरने के बाद मुक्ति िमले न िमले आप तो जीते जी ही मुक्त करा दो । गुरु महाराज गुरु तो थे ही उनहोने िचंतन कर बोला बात तो तू ठीक ही कहता है पर शब्दश: मेरे कहे का अनुसरण करेगा तो वह भी हो जाएगा जैसी तू इच्छा रखता है , पर उसके िलये तेरे को मरना तो पड़ेगा ।

अन्ततः यह तो तय हो गया मरना है , शायर तो न जाने िकतनी बार न जाने िकतनी िकतनी बातों पर मर जाते हैं और मैं एक बार होशों हवाश ,राज़ी ख़ुशी मर भी नही सकता । और िफर गुरु महाराज का मार्गदर्शन तो मेरा संबल है ही । मरना कहना एक बात और वाक़ई मर जाना िनतांत िवपरीत । मुझे तो यकायक आत्महत्या करने वाले बड़े िहम्मतवाले लगे िक वे आ्िखरी समय तक अपने मरने का िनश्चय रख सके क्यों िक अब तो मुझे डर लगने लगा िक मज़ाक़ मज़ाक़ मे बात बहुत बढ़ गयी । िफर िबजली चमकी " जो डर गया वो मर गया " लो हो गई बात अब चूँकि मर तो गये ही है महज़ औपचािरकता ही तो पूरी करनी है मरने की तो चलो एैसा ही सही । वैसे मरने के िलये भी तो सोच ही है हम को करना भी क्या होता है । मरे िक िकस्सा खत्म । नही नही मरने के बाद ही तो अपना िकस्सा शुरु होगा । क्या तो शुरु और क्या खत्म , न जाने यह िकस्सा मरने जीने का कब से चल रहा है और कब तक चलेगा । जानवरों को तो अपने मरने जीने का अहसास ही नही होता होगा या होता भी होगा तो तो उसे वे व्यक्त नही कर पाते होंगे या िफर वे अपनी भाषा मे व्यक्त भी करते होंगे तो हम समझ नही पाते होगें ! खैर वो तो उनकी योनि मे ही जा कर समझा जायेगा । पर यह सारे अपने पूर्व जन्मों का कुछ याद तो रहता ही नही बड़ा अदभुत खेल परमात्मा ने चला रखा है अगर सारे पूर्व जन्मों का याद रहे तो झगड़े और बढ़ जाएँगें वैसे ही एक जन्म के झगड़ो से तो िनजात िमलती नही और िफर पूर्व जन्म के सारे अनुभव संसार चल ही नही पाएगा यह तो व्यावहारिक हो ही नही सकता ।
राजा जनक रात सपने मे वे राज्यचुत हो भूख से पीिड़त जंगलों मे ठोकर खा रहे थे , सुबह उन्होंने राज दरबार मे पूछा रात सपने मे जो देखा वह सपना था ! या अभी जो मैं देख रहा हूँ वह सपना है या वह सपना जो देखा था वह सच है और अभी जो देख रहा हूँ वह सपना है । एैसा ही कुछ अपना भी िकस्सा लगता है िक मरने के बाद जीवन है या जीवन के बाद मरना है और यह मरने और जीवन का रेला कब से चल रहा है , कब तक चलेगा ? आिखर हर शुरुआत का अन्त तो होता ही है , इस जीवन मरण के अन्त का िसल्िसला अगर ख़त्म हो भी गया तो िफर क्या ? अस्तित्व का क्या होगा । 
शंकराचार्य जी कहते हैं " ब्रह्म सत्यं जगत नािस्त " , सर्वं ख्िल्वदं ब्रह्म , जब सभी कुछ ब्रह्म है या ब्रह्म से उत्पन्न हो कर ब्रह्म मे विलीन होने वाला है तो यह माया प्रपंच िकसके िलये और क्यों । आिखर जीव मात्र का इस संसार मे आ कर जाने का औिचत्य क्या है ,
 आहार्िनद्राभयमैथुनत्र्च सामान्यमेतद् पशु्िभ: नराणाम् ।
धर्मों िह तेषाम्िधको िवशेषौ धर्मेण हीना: पशु्िभ: समाना: ।।

- आहार , िनद्रा , भय और मैथुन मे सामान्यत: पशु आैर नर एक ही समान होते हैं । 
धर्म होने से ही नर पशु से उूपर  , िवशेष होता है ,िबना धर्म के नर और पशु एक समान होते हैं ।
          मर मर के जीना या जी जी कर मरना । मरना तो हर हाल है ही िफर से डरना क्यों । िसर्फ मनुष्य ही नही राक्षस, असुर भी मरने से डर अमरता को प्राप्त करना चाहते थे । ये बात अलग िक वे इसमे कभी सफल नही हो पाये । रही बात देवताओं की तो उनके िलये " क्षीणे पुण्या मृत्युर्लोका " पुण्य क्षीण होते ही वे भी हमारी जाति मे शािमल हो गये । अर्थात मेरे सभी संगीत साथी भूतपूर्व देवता ।
आिखर अमरत्व पा कर हम क्या कर लेंगे " पुन्िरप जन्मम् पुन्िरप मरणम् जठरे अ्िग्न शयनम् भज गोिंवदम् ,भज गोिंवदम्  भज मूढ़म्ित " भगवत भजन करेंगे , पर क्या यह भी वाक़ई हो पाता है , अब मैं जानी माया महा ठ्िगनी । माया के वश से तो बड़े से बड़े महाज्ञानी देवर्ष नारद जैसे नही बच पाए तो हम पामरों  की िवसात ही क्या ?
चाटुकािरता िकस को पसंद नही भले ही वह यह कह कर बड़प्पन िदखा दे िक नही नही मैं तो बड़ा ही छोटा आदमी हूँ पर मन ही मन वह सुखद अनुभूति तो  ले रहा है । शायद परमात्मा को भी चाटुकािरता पसंद है नही तो भजन पूजन आिखर क्या चाटुकािरता नही तो और क्या । आप तो संपूर्ण जगत के उत्प्ित्त कर्ता , पालन कर्ता , हर्ता क्या नही हो आप ? सर्वातीत अपरम्पार  म्िहमा वाले सुन्दरता की खान , वीर पराक्रमी और भी न जाने क्या क्या संिक्षप्त मे वो सभी कुछ जो लौिककता या पारलौिककता मे होना संभव है और िफर आप के िलये संभव क्या असंभव सभी संभव है  । हम आपकी स्तु्ित , आप का वर्णन , हम कर भी िकतना पाएँगे । क्योंकि वाणी तो वहीं तक का वर्णन कर सकती है जहाँ तक मन जा पाता है और िफर आप तो ित्रगुणातीत हो मन के भी पार आप की क्या तो स्तुति या क्या तो पूजन । जो कुछ भी िकया जाएगा वह अल्प ही होगा । पुष्पदंत महाराज तो यहाँ तक कहते है िक सारे पर्वतों की स्याही सारे समुद्र मे घोल कर सारे वृक्षों की क़लम बना कर स्वयं साक्षात सरस्वती जी भी िलखे तो भी वह अधूरा ही रहने वाला है ।
वपुरा्िदषु यो्िप को्िप वा गुणतोसा्िन यथातथािवध: ।
तदयं तव् पादपदमयो रहमद्ैधव मया समर्पित : ।।
- हे भगवन ् । शरीर आ्िद मे िस्थत मैं जो कोई भी हूँ अथवा गुणों से जैसा भी हूँ , वैसा ही अपने आपको आपके चरण कमलों मे अर्पित करता हूँ ।

मरता तो शरीर है , मै कोई शरीर तो हूं नही । मरने पर शरीर पड़ा रहता है और लोग कहते हैं िक " शांत " हो गया । इसका तो यही मतलब हुआ िजंदगी भर अशांत रहे अब जा कर कहीं अन्तत: शांित िमल पाई । पहले भी कई कई बार मरा हुआ हूं , और अभी भी मरूँगा इसमें भी क़तई संदेह नही है , देख भी रहा हूँ लोग मर रहे है , अपने मर रहे हैं , पराये मर रहे है ,मरने मारने का क्रम सतत िनरंतर जारी है जीने का भी समानान्तर क्रम वो भी जारी है ।सपना ही है , हम कभी भी सपने को भी सपने मे सपना नही सोचते , हम सपने मे यथार्थ और शायद यथार्थ मे सब सपना ही देख रहे हैं । जब मरना ही था तो िफर जन्म ही क्यूँ हुआ , अब जब जन्म हो ही गया है तो मरना क्यों । नही नही कुछ तो कारण होगा क्योंकि इस जगत मे हर एक का कारण होता है िबना कारण के कोई कार्य हो ही नही सकता । कार्य कारण िसद्धान्त यहाँ भी लागू होगा । 
भगवदप्रािप्त के िलये यह जीवन िमला है , अध्यात्म्िकता के सूक्ष्म धरातल मे प्राप्त क्या करना वह तो स्वंय स्फूर्त पहले से ही प्राप्त है इस िबसरे तथ्य को पुनः स्मरण मे लाना भर है िजतना भी उपलब्ध ज्ञान इस संसार मे है  उस को प्राप्त करने के िलये एक जीवन तो बहुत ही कम पड़ जायेगा और ले दे के जो कुछ भी करना है इस जीवन मे हो वही ज्यादा श्रेष्ठ होगा क्यो िक अगला जीवन कुत्ते िबल्ली का हुआ तो या िफर क्या ? देव लोक मे भी गए तो वहां भी कौन सी पूर्णता है , हां असुरो मे तो जरूर भ्िक्त की बाहुल्यता है , िजतनी भ्िक्त असुरो ने की है उतनी भ्िक्त सुरों ने की पढ़ने सुनने मे नही आयी है । पर असुरों मे ' मृत्यु के भय से मुिक्त ' तो वहां भी नही हो पायी  ।शायद भरत जी ठीक ही कहते हैं 
" धरम् न अरथ न काम रु्िच ग्ित न चहंु िनर्वान ।
   जनम जनम र््ित राम पद और न कोउ आन ।। "
न धर्म चा्िहये न िकसी अन्य भोग , िवलास की कामना न मुिक्त । चािहये तो िसर्फ हर जन्म राम चरणो के प्र्ित अनुर्िक्त । यह तो ठीक भी है िक कम से कम हर जन्म मे उनके चरणों के प्र्ित प्रेम न केवल बना रहेगा अ्िपतु स्मरण भी रहेगा ।
पर मुझंे तो इस सब िक्रयाकलाप का दृष्टा होना है और यह तो 
अजा ( अा कर न जाना ) की रजा से आये 
और जजा ( जो आया है उसे जाना ही पड़ेगा ) की रजा से जायेंगे ।
इसमे हमारे स्वंय का क्या योगदान । उसकी इच्छा मे हमारी इच्छा िमलाना है न िक हमारी इच्छा मे उसकी इच्छा िमलवाना ।
अरब खरब लौ द्रव्य हैं उदय अस्त लौ राज ।
तुलसी जो िनज मरण है आवै कौनउ न काज ।।
मरना तो है ही तो क्यों न उसका आनंद ले कर मरें । वैसे भी मनुष्य उत्सव्िप्रय प्राणी है वह जन्म से मृत्युपर्यन्त सोलह संस्कारों मे िसर्फ १५ संस्कारो तक ही उत्सव मनाता है अं्ितम संस्कार को न जाने वह उत्सव के रूप क्यों नही मनाता अ्िपतु वह तो मृत्यु के नाम मात्र को वह अपशगुन मान उसका िजक्र तक नही करना चाहता । इस मामले मे आ्िदवासी संस्कृ्ित हमारी सभ्यता से अच्छी मानी जा सकती है जहाँ वे मृत्यु का उत्सव मनाते है िक राही सफ़र मे था लौट अपने धर गया । और इधर हम है िक मरना ही नही चाह रहे हैं । बच्चे जवान तो ठीक है यहाँ तो बूढ़े भी मरना नही चाहते , परेशान हो भले ही कह दें िक अब तो उठा ले पर अगर जीवन और मरण चयन का मौका िमले तो जीवन ही चुना जाएगा , लोकाचार के चलते घर प्िरवार समाज जन भी जीवन के ही पक्षधर होंगें , आ्िखर वे स्वंय भी अपने िलये यही चाहते हैं । हमारी सोच कसाई के बाड़े मे बन्धे उस जानवर की तरह होती है जो अपनी बारी की बाट जोह तो रहा है , पर जीवन भर उसे झुटलाता रहता है , शायद कुछ चमत्कार हो जाये और हमारा क्रम आते आते कुछ िनयम बदल ही जाए । जानवर तो जाने अनजाने अं्ितम प्िर्िणत को स्वीकार कर भी ले रहा है पर हम इस सर्व्िव्िदत तथ्य को लगातार झुठलाने के प्रयास मे लगे है । तरह तरह के उम्र बढ़ाने के देशी िवदेशी नुस्खे । आश्चर्य तो यह है िक हम उम्र के उस मुक़ाम को बढ़ाने मे लगे हैं , िजसमे न तो हम ढ़ंग से सुन सकते है, देख सकते हैं , खा-पचा सकते है व कई अन्य िजनका हम मज़ा लेने के िलये जीना चाहते हैं , पर कम से अभी मरना तो नही ही चाहते ।
           गुरु कथनानुसार िनयत िदवस पर मृत्यु का बहुप्रतीिक्षत क्षण भी आ गया , सोचा मालूम तो अभी ही चल जायेगा , देवदूत आये तो स्वर्ग पक्का और यमराज के दूत आये तो िफर नर्क की ही संभावना प्रबल है हालाँकि कभी कभी कैलकुलैशन एरर भी होती है िजसे यहाँ तो मानवीय भूल मान भी िलया जाता है वहाँ तो अपग्रेडेड तकनी्िक होगी इस्िलये benefit of doubt की संभावना कम ही होगी । खैर अब तो तीर हाथ से िनकल चुका है ।
        िनचेष्ठ शरीर काफ़ी समय तक एैसे ही पड़ा रहा ,  धवल वस्त्रों मे देवदूत आ गये यह सोच कर कुछ हद तक संतु्िष्ट हुयी िक चलो पार लगे । पर ये क्या नही नही ये तो नर्क है कई नुकीली कीलें चुभानी शुरु हो गयी हैं , मन ही मन अपने जाने अनजाने हुये पापों का स्मरण कर प्राय्िश्चत करने लगा , चेतनता का आभाव होता गया ।

धना्िन भूमहु पशवस गोष्ठे ना्िरगृहद्वारे जना: शमशाने: ।
देह: िचतायाम परलोक मार्गे धर्मानुगो गच्छय्ित जीव एका: ।।

- धन , भूमि तक साथ रहता है ।
- पशु ( गाय बैल ) , उनके कोठे तक साथ देते हैं ।
- पत्नी , घर के दरवाज़े तक ही साथ देती है ।
- संबंधी एवं प्िर्िचत , शमशान तक ही साथ देते हैं ।
- देह , भी िचता तक ही साथ देती है ।
 - यह जीव अकेला ही जाता है ।
- िसर्फ धर्म , ही जीव के साथ जाता है ।

                उम्र भर चलते रहे मगर कंधो पे आये कब्र तक, 
                बस दस कदम के वास्ते गैरों का अहसान हो गया "
 संगी साथी जैसा होता है मृत्योपंरात बुराई तो नही ही करते हैं ब्िल्क सारी अच्छाइयाँ एकसाथ आप मे समािवष्ट हो जाती हैं , कैसा भी था , था अच्छा और शमशान आते आते तो कईयों मे " मरघ्िटया वैराग्य " भी आ जाता है । ( यह वैराग्य - आत्मा का परमात्मा िमलन , नश्वर शरीर , क्या लाये थे क्या ले जायेंगे , िजस पुत्र के िलये यह सारा प्रपंच िकया वही अ्िग्न प्रज्जव्िलत करेगा आिद आ्िद िसर्फ मरघट / शमशान तक ही सीमित रहता है ) 
सेमल के बीज सदृश , फ़ाहे जैसा मुक्त अहसास , दूर बादलों से भी आगे भारहीनता , हवा के झोंके से चलायमान अनन्त ब्रह्माण्ड की खोज मे अन्तहीन यात्रा ।
न पापं न पुण्यं िचदानंद रूपं िशवोहम् िशवोहम् 
िशव ही तो हैं जो िक प्रलय के भी संहारकर्ता है । कही मै िशव ही तो नही हो गया हूँ , 
हो गया नही तू तो िशव ही है , हम सभी िशव हैं िसर्फ भूल गये थे चलो अच्छा हुआ तुझे स्मरण हो आया - गुरु महाराज ने कंधा थपथपाया चल उठ अभी तेरा जीवन सार्थक होना शेष है ,।
तो क्या मै मरा नही था , िफर वो धवल वस्त्रों वाले देवदूत/ यमदूत कौन थे ?